Thursday 24 July 2014

देश में बढता जुवैनाइल क्राईम - भारत क्‍यूं लुम्‍पन फौज तैयार करने की फैक्‍ट्री बन रहा है ?


दिल्ली गैंगरेप केस के आरापियों में से एक आरोपी किशोर है उसे क्‍या सजा होगी, इस बात पर गरमागरम बहस हो रही है। बाल आपराधियों के लिये अदालती कार्यवाही व सजा का प्रावधान बिल्‍कुल अलग है और सजा बालिग अपराधि‍यों से बहुत कम होती है। सजा क्‍या, जुवेनाइल जस्टिस एक्‍ट के तहत उन्‍हे सुधार के लिये जुवेनाइल होम्‍स में भेज दिया जाता हैा मेरा मानना है कि जुवेनाइल शब्‍द में कई तरह की समस्‍यायें है। कानूनन जुवेनाइल वह है जो 18 साल से कम उम्र का है। इस 18 साल को हमने एक मैजिकल रेखा बना दिया है। सिर्फ अपराध के सम्‍बन्‍ध में ही नही, दुसरे कई मामलों मे भी। जैसे 18 साल से कम उम्र की लडकी की शादी गैर कानूनी है। उससे लैगिंक रिश्‍ता रखना भी दंडनीय है, चाहे लडकी अपनी इच्छा से ही शादी क्‍यों न करना चाहे। पर अगर 18 साल से कम उम्रका व्‍यक्ति बलात्‍कार करता है तो उसके साथ नरमी बरती जाती है।

सुधार के नाम पर
जब जुवेनाइल जस्टिस ऐक्‍ट बना तो माना गया कि कच्‍ची उम्र के अपराधियों को सजा की नहीं, सुधार की जरूरत होती है क्‍योकि वह वयक्ति नासमझ होता है। इसलिये उसे जेल नहीं करैक्‍शन होम्‍स में रखा जाना चाहिये।लेकिन आज की हकीकत यह है कि करैक्‍शन होम्‍स की हालत जेलों से कही बदतरहैा एकदम टॉर्चर चैम्‍बर्स की तरह। यहां बच्‍चे भयानक किस्‍म के शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण के शिकार होते है। जेलों में तो फिर भी कोई कायदा कानून लागू होता है क्‍योंकि यहां खुद अपराधी अपनी बात वकीलों इत्‍यादि द्वारा अदालतों व मीडिया तक अपनीबात पहुंचा सकते हैं। लेकिन जुवेनाइल होम्‍स तो निरंकुश ढंग से काम करते है। उनको बाहरी दुनिया से बिल्‍कुल काट के रखा जाता है। यहां अच्‍छा भला बच्‍चा भी तबाह हो जाताहै। वे मासूम भी टूटी बिखी हालत में बाहर निकलते है और कई अपराधि‍यों की संगत में अपराधी ही बन जाते हैं।

आज सवाल सिर्फ यह ही नही कि 18 से कम उम्र के बच्‍चों को सजा जुर्म अनुसार दी जाये या नाबालिक समझ ढील बरती जाये। बडा सवालयह है कि आज हमारे देश में क्‍यूं और कैस जुवेनाइल अपराधियों की एक भारीभरकम भयानक फौज खडी हो गई है।

साइकोपैथिक फौज
दिल्‍ली गैंगरेप का नाबालिक आरोपी कोई आम अपराधी नहीं, एक साइकोपैथ है। उसने पीडित लडकी का सिर्फ बलात्‍कार किया, उसके शरीर को चीथडे-चीथडे कर दिये। क्‍या ऐसा अपराधी, जुवेनाइल होम के लिये भी खतरा नहीं है? और यह कोई इकलौता साइकोपैथ नहींहै। ऐसे कितने ही युवा भूखे भेडियों की तरह आवारा घूम रहे है। उनकी मानसिक विकृति समाज के लिये बडा खतरा है।

इस साइकोपैथिक फौज में तीन तरह के लोग शामिल है। पहलावह रईसजाता वर्ग है जिसने या जिसकेबाप ने अवैध तरीके से अपार पैसा कमाया है। जाहिर है, यह पैसा उसे हजम नही हो रहा क्‍योंकि उसने उन संस्‍कारो को नहीं जिया है, जो हाथ में आई दौलत का सदुपयोग करना सिखाते हैं। भारतीय संस्‍कृति में सात्विक साधनों द्वारा धन सम्‍पत्ति कमाने और उसके सदुपयोग करने को बहुत अहमियत दी जाती है। हम तीन देवियों की साथ पूजा करते है। लक्ष्‍मी, सरस्‍वती और दुर्गा। लक्ष्‍मी ईमानदारी से धन कमाने का संस्‍कार देती है और सरस्‍वती जी उसे विवेक से इस्‍तेमाल करने का। दुर्गा बताती है कि अगर धन और बुद्धि‍ का इस्‍तेमाल दुष्‍कर्मो के लिये किया तो व्‍यक्ति का वही हाल होगा, जो महिषासुर का हुआ। जिन परिवारों में सिर्फ लक्ष्‍मीपूजा पर बल दिया जाता है वहां कभी सही खुशहाली नहीं आती।

संस्‍कारहीन व्‍यक्ति विवेक छोड देता है और सोचता है कि पैसे से सभी काक खरीदा जा सकता है – सरकारी प्रशासन और पुलिस को भी। ऐसे व्‍यक्ति को औरत भी बिकाऊ लगती है और उन्‍हें बिकाऊ औरते मिल भी जाती है। परन्‍तु इन रईसजादों को लडकियों को सडकों से उठाकर नोचने की जरूरत नहीं पडती। उनके लिये फाइव स्‍टार होटलों में कॉल्‍ गर्ल्‍स तैयार रहती है। उन कॉल गर्ल्‍स के साथ होटलके कमरों में क्‍या होता है, किसी को पता नहीं चलता।
दूसरा वर्ग है, भ्रष्‍ट राजनेताओं, सरकारी अधिकारि‍यों और पुलिस अफसरो के बच्‍चों का। ऐसे कितने ही पुलिस अधिकारी है व एमपी, एमएलए है जिनके बच्‍चे क्रिमिनल गैंग्‍स के सरगना है। उन्‍हें लगता है कि सरकार उनकी मुट्ठी में है। इस सरकारी तंत्र से उपजे रईसजादे के लिये भी हर इन्‍सान खिलौना है। औरत भी। उसके साथ खेल कर उसे तोड देना उनके लिये सामान्‍य बात है क्‍योंकि खिलौना टूटने पर उन्‍हें पर उन्‍हे नये खिलौने मिल जाते हैं।

तीसरा वर्ग गरीब परिवारों से आता है – गांवों से व छोटे शहरों के पुश्‍तैनी धंघों की गरीबी से हताश होकर, उजडकर यह वर्ग बडे शहरों में आकर बसता है। इन्‍हें हम इकानॉमिक रिफ्यूजी कह सकते हैं। खेती व अन्‍य पुश्‍तैनी धंधें उनसे छिन चुके है क्‍योंकि उनसे गुजारा नहीं होता। शहर आकर वह फुटपाथ पर रहते है या अवैध झुग्‍गी बस्‍तियों में। इन बस्‍तियों में यह गरीब उज्ड़े लोग पुलिस व राजनैतिक गुंडो की दहशत के साये तले रहते हैं। झुग्‍गी बनाने से लेकर बिजली, पानी कनैक्‍शन पुलिस व राजनैतिक माफिया को चढावा दिये बगैर कुछ नहीं मिलता। ऐसी बस्तियों में पुलिस अक्‍सर गरीबों को मजबूरन अपराधी गतिविधियों की ओर धकेलती है। ड्रग पैडलिंग, गरीब घर की औरतों को देह व्‍यापार में धकेलना, लड़कियां व छोटे बच्‍चों को अपरहण्‍ करवाने का काम पुलिस की देखरेख में होता है।

शहरी स्‍लम्‍स व अवैध बस्तियों के अपराध लिप्‍त माहौल में पले बच्‍चे बहुत आसानी से अपराध जगत की ओर फिसल जाते है क्‍योंकि वहां हर रोज आत्‍म सम्‍मान को कुचल कर जीना पड़ता है।

हमारी सरकार ने बहुत ताम झाम के साथ राईट टू एडूकेशन का कानून तो पारित कर दिया परन्‍तु स्‍कूल में काम चलाऊ शिक्षा तक देने का इन्‍तजाम नहीं कर पायी। हमारा शिक्षक वर्ग पढाई से ज्‍यादा पिटाई में माहिर है। नतीजतन हमारे बीए एमए पास भी ढंग के चार वाक्‍य नही लिख पाते। दसवी बारहवीं पास को चौथी स्‍तर का गणित नहीं आता। हाल ही में सरकार ने सरकार द्वारा स्‍कूली टीचरों को दिये एक टैस्‍ट में करीब 99 प्रतिशत फेल हो गये। ऐसे स्‍कूलों मे बच्‍चे लफंगपन अधि‍क सीख रहें हैं और पढाई लिखाई कम। हर गांव हर मौहल्‍ले में आठवीं फेल, नवीं नापास, दसवीं ड्रॉप आऊट छात्रों की भरमार लगी है जिनको स्‍कूली शिक्षा ने उनकी पुश्‍तैनी कलाओं व हुनर से नाता तुड़वा दिया परन्‍तु आधुनिक शिक्षा के नाम अक्षर ज्ञान के अलावा कुछ नहीं दिया। पारम्‍परिक पेशों – जैसे बुनकर, लोहार, कुम्‍हार, किसानी, इत्‍यादि में दिमागी व हाथ की दक्षता भी थी और आत्‍म सम्‍मान भी। परन्‍तु फटीचर किस्‍म के अधिकतर सरकारी स्‍कूल किसी क्षेत्र में दक्षता देने में अक्षम्‍य है। स्‍कूलों में टीचरों की डांट डपट व शारीरिक पिटाई बच्‍चों का आत्‍म विश्‍वास व आत्‍म सम्‍मान भी कुचल रही है। ऐसे ही युवक देश की लुम्‍पन फौज का हिस्‍सा बन गांवो और शहरो में कहर मचा रहे हैं। क्‍योंकि ढंग की रोजगार के वे हकदार ही नहीं।
कुछ वर्ष पहले महाराष्‍ट्र के एक गांव में मुझे स्‍थानीय लोगों ने बहुत गर्व के साथ नवीं या दसवीं में पढ रहे एक छात्र से यह कहकर मिलवाया कि यह हमारा सबसे होनहार बच्‍चा है। मैने उसे एक लेख लिखने का आग्रह किया जिसका विषय था -- मेरा जीवन और मेरी आकांक्षायें । एक घण्‍टे बाद जब  उसने मुझे बहुत साफ सुन्‍दर लिखाई में जो दिया उसका शीर्षक था -- राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी। मैने हैरत से उसे पूछा कि उसने स्‍वयं अपने जीवन पर क्‍यों नही लिखा, तो उसका जवाब था, मैडम हमारे कोर्स में हमें उस विषय पर अभी लेख नहीं सिखाया। यानि अपने बारे में भी जो छात्र 20-25 वाक्‍य नही लिख सकता, सिर्फ रटे रटाये विषय पर ही लिख सकता है उसकी सोच विचार की शक्‍ति बुरी तरह कुचल दी गई है। मुझे दुख  हुआ कि अगर यह बच्‍चा सरकारी शिक्षा व्‍यवस्‍था का बेस्‍ट प्रोडक्‍ट है तो बाकियों का क्‍या हाल होगा। जब सबसे होनहार छात्रों का यह हाल है तो छठी या दसवीं कक्षा के ड्राप आॅऊट का क्‍या हश्र होगा, सोचकर भी मन शोक से भर जाता है।

ऐसे गरीब टूटे बिखरे दरिद्रता लिप्‍त परिवारों के गुस्‍साये और Frustrated  युवा जिन्‍हें स्‍क्‍ूलों ने नरिवद्द बना दिया बारूद के गोले बन समाज में चारो ओर भटक रहे हैं। 

पुलिस नही] परिवार 
17 वर्ष का बलात्‍कारी भी गांव की गरीबी से हताश हो 12 साल की उम्र में अकेला शहर चल पडा, शायद तीसरी नापास का ठप्‍पा उसे भी लगा था। गरीब मां को मालूम भी नही जिन्‍दा है या मरा। उसने भी इस बेरहम शहर में कितनी दुत्‍कार झेली होगी, कितनी ठोकरें खाई होगी, कितना शोषण भोगा होगा इसका अन्‍दाजा लगाना आसान नही। ऐसे बारूद नुमा युवाओ को विस्‍फोटक बनाने का काम हमारा मीडिया बखूबी कर रहा है। कटरीना कैफ और मलैइका अरोडा के सैक्‍सी झटके ठुमके 24 घण्‍टे टीवी सिनेमा हाल  इत्‍यादि में उन्‍हें भडकाने का काम कर रहे हैं। उस पर पोरनोग्रैफी की चहुं ओर भरमार। इन सबके चलते स्‍त्री के प्रति सम्‍मान की दृष्‍टि यह टूटे बिखरे, प्रताडित व्‍यक्‍ति कहां से लायें? भारतीय संस्‍कृति में स्‍त्री को सृष्‍टि रचाईता के रूप में पूजनीय माना गया और सैक्‍स को भी श्रद्धैय दृष्‍टि से देखा गया है। खजुराहो, कोनार्क व अन्‍य पुरातन मंदिरों में लैगिक क्रिया को sared act के रूप में जगह दी है। अजन्‍ता की चित्रकारी में स्‍त्री का शरीर लगभग वस्‍त्र विहीन है। परन्‍तु इन चित्रों या कोनार्क में शिव पार्वती के प्रेम अलिंगन को देख किसी में अभद्र भावनायें नहीं उत्‍पन्‍न होती।सब श्रद्धेय लगता है। परन्‍तु किंगफिशर के कैलेण्‍डर में बिकनी लैस लडकियों को पेश करने का मकसद केवल एक ही है- मर्दों की लार टपके, उनमें सैक्‍स उत्‍तेजना बढे और स्‍त्री भोग की वस्‍तु दिखे जिसके कपडे पैसे देकर उतरवाये जा सकते है।  विजय माल्‍या जैसे रईस जादों की ऐययाशी के लिये तो ऐसी लडकियों की लाईन हर वक्‍त लगी है। परन्‍तु हमारे लुम्‍पन युवाओं के लिये तो यह ऐय्याशी आसानी से उपलब्‍ध नही। वे तो औरत को नोचने खसोटने के लिये सडकों पर ही शिकार करेंगे।

ऐसी वहशी ताकतों को रोकने का काम पुलिस अकेले कर ही नही सकती। यह तो परिवार और समाज ही कर सकता है। परन्‍तु हर वर्ग में परिवार की जडें कमजोर की जा रही है। अमीर व मध्‍यम वर्ग में पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति की भोंडी नकल की वजह से सयंक्‍त परिवार को तोडना आधुनिकता ही पहचान बन गई है।न्‍यूक्‍लीयर परिवार में जहां पति दोनो नौकरी पेशा है वहां बच्‍चों को नौकरों के हवाले करने का मतलब है, उनकी निरंकुश परवरिश। टीवी इन्‍टरनैट से दुनिया से Virtual नाता तो जुड सकता है, परन्‍तु संस्‍कार देने का काम तो केवल परिवार ही कर सकता है जिसमें नानी, दादी, बुआ, मासी, चाचा, चाची का शमिल होना जरूरी है। जहां ऐसे परिवार आज भी जिन्‍दा है वहा बच्‍चे लफंगें नही बनते। जहां परिवार सिकुड गया और पडोसियों व रिश्‍तेदारों से नाता सिर्फ औपचारिक रह गया, वहां बच्‍चों का दिशा विहीन होना आसान है।
दूसरी ओर गरीब परिवार दरिद्रता की वजह से टूट रहे है। गांवो की गरीबी से बदहाल अधिकतर पुरूष अपना परिवार गांव में छोड रोजगार की तलाश में अकेले ही शहरों का रूख करते है क्‍योंकि बेघर अवस्‍था में शहर में परिवार पालना और भी मुश्‍किल है। अकेले होने से शहरों में कुसंगत का असर जल्‍दी होता है और शराब, ड्रग्‍स वे वेश्‍यावृत्‍ति की ओर कदम फिसल जाते है। परिवार के साथ आयें तो अपराध लिप्‍त स्‍लम्‍ज में बच्‍चे पालना जोखिम  भरा काम है। पता नही कब बेटी का अपहरण हो जाये या बीवी गुण्‍डो से अपमानित हो। इन टूटे बिखरे परिवारों से ही एक बडी लुम्‍पत फौज तैयार हुई है। दिल्‍ली गैंग रेप का नाबालिग आरोपी भी इसी लुम्‍पन फौज का सिपाही है। यह सब हमारे समाज के लिये खतरे की घण्‍टी  है क्‍योंकि देश में बढता अपराधी करण एड्स वायरस की तरह पूरे समाज को घुन की तरह खा रहा है। इसका इलाज कानून में दो चार नये प्रावधान जोड या 100-200 को फांसी की सजा सुनाने से ही नही हो सकता। इसके लिये हम सब को धैर्य और संजीदगी से देश की राजनीति व प्रशासन की दशा व दिशा बदलने के साथ समाज की अन्‍दुरूनि शक्‍ति को भी जागृत करना होगा, ताकि लुम्‍पन युवाओं की तडप, आक्रोश व एनर्जी को सही कन्‍सट्रक्‍टिव आऊटलेट्स दे सकें। 
       

इस लेख का एक संपादित संस्करण 15 जनवरी 2013 को नवभारत टाइम्स में प्रकाशित किया गया था:  
http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/viewpoint/Juvenile-crime-is-a-symptom-of-the-disease-of-society/articleshow/18020865.cms


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Madhu Kishwar

Madhu Kishwar
इक उम्र असर होने तक… … … … … … … … … … … … … … … … … … … … … … …اک عمر اثر ہونے تک